Tuesday, 1 May 2018

आध्यात्म :ईश्वर और मन (भाग - 2)

इस श्रृंखला के भाग - 1 में हमने ईश्वर के अस्तित्व को तो समझ लिया परंतु
                ईश्वर का रूप, रंग, आकार, प्रकार तथा स्वभाव अभी भी हमारी बुद्धि के सामर्थ्य के परे नजर आता है।
              चूंकि ईश्वर की अनुभूति केवल मानसिक सामर्थ्य से ही की जा सकती है, बौद्धिक सामर्थ्य से नहीं।
            हो सकता है कि जब हमारे पूर्वजों ने ईश्वर रूपी इस पराशक्ति का  मानसिक अनुभव किया होगा तो उसके संबंध में हमें जानकारी देने की कोशिश में उन्होंने
इसके रूप, रंग, आकार, प्रकार तथा स्वभाव का वर्णन
अपने बौद्धिक सामर्थ्य के अनुसार किया होगा।
           
            अब हम जानते हैं कि मानसिक सामर्थ्य और बौद्धिक सामर्थ्य के मध्य में कितना अंतर है।
         
           मन की किसी भी कल्पना को शाब्दिक अर्थ देने पर उसका वास्तविक अर्थ कहीं खो जाता है।
यथा - प्रेम शब्द एक ऐसा मानसिक अनुभव है जिसको शाब्दिक अर्थ प्रेम द्वारा व्यक्त करना संभव नहीं है।

       मेरे अनुसार -
                         ईश्वर ऊर्जा रूप ही है, (जिसके द्वारा सभी वस्तुओं का निर्माण हुआ है), जिसे ना तो उत्पन्न किया जा सकता है और ना ही नष्ट।
                         ईश्वर (ऊर्जा), जब संसार नहीं था, तब भी था और संसार नहीं रहेगा, तब भी रहेगा।
         जिसका ना तो आदि है और ना हि अंत।
      ऊर्जा (ईश्वर) अमर है, यह विज्ञान का भी सिद्धांत है।
        ईश्वर (ऊर्जा) कण-कण में व्याप्त है।
जिस तरह से ऊर्जा को द्रव्यमान में और द्रव्यमान को ऊर्जा में दाब तथा ताप द्वारा बदला जा सकता है, उसी तरह से ईश्वर को भी मानसिक भक्ति रूपी दाब से सगुण से निर्गुण में और निर्गुण से सगुण में परिवर्तित किया जा सकता है।
       यदि किसी भी वस्तु को मन से प्राप्त करने की चाह रखी जाए (चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो) , तो मेरा दावा है कि वह वस्तु प्राप्त होकर रहती है।

आपके या मेरे द्वारा ईश्वर की सत्यता अथवा असत्यता को प्रमाणित या अप्रमाणित करने से कुछ भी नहीं होने वाला।

अपनी बुद्धि को सत्यता या असत्यता में भ्रम हो सकता है परंतु मन को नहीं ।
मन सदैव सत्य ही बोलता है। अगर ऐसा नहीं होता तो शायद यह विज्ञान का आधार नहीं होता।

तुलसीदास जी  ने क्या खूब लिखा है कि -
                  "जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू।
                  सो तेहि मिलेहुं ना कछु संदेहू।।"
     आशा है कि आपको पसंद आया होगा।

4 comments:

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    1. जी श्रीमान,
      हम इस प्रकृति (ऊर्जा) के प्रति प्रेमभाव रखकर ईश्वर(प्रकृति, ऊर्जा) से कृतज्ञ हो सकते हैं।
      परन्तु हम सभी केवल बौद्धिक और शारीरिक प्रेम से ही परिचित हैं, आत्मिक (मानसिक)
      प्रेम की परिभाषा हमारी समझ से परे है।
      मुझे लगता है कि यदि हम प्रकृति से वास्तविकता में प्रेम करने लगे तो इससे बड़ी सिद्धि तो कुछ है ही नहीं क्योंकि मनुष्य अपना स्वार्थ भाव भूल जाए तभी उसे सभी से प्रेम हो सकता है।
      जो कि मनुष्य के लिए सर्वाधिक असंभव कार्य - सा लगता है।
      अगर हम प्रकृति को समझ लेंगे अर्थात प्रकृति से वास्तविक प्रेम करने लगेंगे (यहां मैं यह नहीं कहना चाहता हूं कि प्रकृति का दोहन बिल्कुल नहीं करें क्योंकि वह तो बनी ही कल्याण के लिए है, अपितु
      वह वास्तविक प्रेम क्या है, इसे समझने के लिए शब्द नहीं हैं क्योंकि शब्दों का भी अपना सामर्थ्य है, जबकि आत्मिक प्रेम अपरिमित है।)

      हो सकता है कि हमारे पूर्वज इस उपरोक्त तथ्य को जानने के कारण उन्होंने प्रकृति की ईश्वर रूप की कल्पना की क्योंकि वे जानते थे कि किसी भी सगुण रूप को सिद्ध करना(अर्थात उससे वास्तविक प्रेम करना) किसी निर्गुण को समझने से सरल कार्य है।
      और एक बार हम सभी सगुणों से आत्मिक प्रेम करने लगे तब हमारे लिये प्रकृति को समझना आसान हो जाता है।

      मेरे अनुसार तो यही भक्ति की पराकाष्ठा होगी।

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  2. ईश्वर को प्राप्त करने से आपका क्या तात्पर्य है ? ईश्वर तो कण कण में व्याप्त है, हम सभी में वो ऊर्जा पहले से ही विद्यमान है।

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    1. श्रीमान जी,
      सरल शब्दों में कहें तो आपके प्रश्न में ही उत्तर है।

      स्वयं को जानना ही ईश्वर को जानना है, यही तो अध्यात्म का सार है।


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